वक़्त बदला ..शहर बदले..
पर नहीं बदली तो यादें हैं..
किसी की मुस्कान का जरिया बन ,
दिल आज भी नम हो जाता है ..
नहीं बदली तो संस्कारें हैं..
वक़्त बदला ..शहर बदले..
जीवन शैली बदली
पर नहीं बदली तो जीवन की रेखायें हैं ..
वो कल भी टेढ़ी मेढ़ी थी
और आज भी उलझी हैं
वक़्त बदला ..शहर बदले..
दोस्तों के नाम बदले
पर नहीं बदली तो दोस्ती हैं ..
वक़्त बदला ..शहर बदले
सरकारें बदल गयी
पर नहीं बदली तो आम जनों की बदहाली है
भारत माँ के आँखों में आज भी आँसूं हैं..
वक़्त बदला ..शहर बदले
दीपेश की कलम से..
Tuesday, May 22, 2012 |
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काश कि इन् पलों का कभी कल ना आये..
यादों की आज में ही ये जीवन गुजर जाये ..
बंद कभी ना हों ये हँसी की कहकहे ,
ना कभी खत्म हो इन् आँसुओं की अहमियत ..
कल कुछ आत्म्जन बिछुर जायेंगे ..
पथ की यादें मुझे तरसायेंगे..
जीवन तो राहें ढूँढ ही लेगी ..
पर क्या हमारी हँसी भी हमहें ढूँढ पाएंगी ..
साथ तो बस सुनहरी यादें ही रह जायेंगी !काश कि इन् पलों का कभी कल ना आये..
यादों की आज में ही ये जीवन गुजर जाये ..
दीपेश की कलम से...
Monday, May 07, 2012 |
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आशाओं की बदरी तो आयी ,
सपनों ने उम्मीदों को दस्तक भी दी ,
नयनों ने आँसूं भी बरसाए ,
पर फिर भी नहीं बरसी उम्मीदें...
हजार नेतागण आये ,
साथ सपनों की फौज लाये ,
आम आदमी को बहलाए - फुसलाये
पर फिर भी नहीं बरसी उम्मीदें...
मुरझाई शहीदों की शहादत ,
फीकी पड़ती आजादी की रँगत,
देश मना चुका बासठ गणतंत्र है ..
पर फिर भी नहीं बरसी उम्मीदें...
हर एक अपनी राग अलाप रहा ,
कोई मुसलमानों को , कोई हिन्दुओं को रीझा रहा ,
अगड़ा भारत - पिछड़ा भारत एक दुसरे से दूर जा रहे ,
ऐसे मैं कैसे बरसेंगी उम्मीदें...
शुक्र है खुदा का ,
की नहीं बरसी उम्मीदें ...
दीपेश की कलम से..
Saturday, January 28, 2012 |
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बरसेंगी उम्मीदें .. ?
या सो जायेंगे सपने सदा के लिए..
आकाश के ओर टिकी हैं निगाहें...
क्या फिर से बरसेंगी जीवन वाली बूँदें .. ?
या हमेशा के तरह बरसेंगे आकाश से अंगारे
जो जला देंगी मधुवन में जन्मे नन्ही कोपलों को ..
कोपलें तो फिर से फूटेंगी ..
पर जमीन में दफ़न उन सपनों का क्या होगा ...
क्या उनके हिस्से सिर्फ इतिहास होगा ,
या मिलेगी कुछ जमीन...
सीचेंगी वसुंधरा फिर से इनको ,
फिर से उठ खरे होंगे ये सपने ..
फिर से बरसेंगी उम्मीदें ...
.
.. दीपेश की कलम से.. !
Saturday, January 07, 2012 |
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उम्मीदें भी बड़ी अजीब होती हैं ...
कभी सपनों के करीब ,
तो कभी उनसे कोसों दूर होती हैं...
कभी नाकामियों को याद दिलाती ,
तो कभी ख्वाहिशों को पंख लगाती हैं ..
उम्मीदें भी बड़ी अजीब होती हैं...
कभी अंधेरों में जुगनू की तरह राह दिखाती ,
तो कभी घनी दुपहरी में बादलों का घेरा लगाती हैं ..
कभी नव-सृजन को अंकित करती ,
तो कभी सृष्टि-विनाश का सूचक बनती हैं ...
उम्मीदें भी बड़ी अजीब होती हैं ....
दीपेश की कलम से....... !
Saturday, December 03, 2011 |
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जब भी नजरें फिराता हूँ , बचपन की तस्वीरों पे
सहसा , आँखों में आँसूं आ ही जाते हैं ..!
कितने हसीन दिन थे वो ,
आँखों में बस सच्चाई ही बसती थी .. !
पल में रोना , पल में हँसना पर गिले शिकवों का नामो-निशान ना होना ...!
आज खेल - खेल में हुई लड़ाई ,
पर कल फिर वही गले-लगाई...!
वो बारिश की बूंदों का हथेली पे सिमटना , कागज़ के नावों का उलटना - पलटना ..!
वो घुटनों का छिलना,पर हाँ - ना के भँवर से दिल का ना दुखना ..!वो खीलौनो का टूटना - फूटना ,
पर सपनों का रोज सजना - सवरना...! वो बचपन की तस्वीर का फिर से उभरना ,
आँसुओं का आना जाना , फिर से बचपन का ताना - बाना .. !
आँखों में आँसू , मुख पे हँसी लिए
ऑफिस को जाना , लुट चुकी बचपन के ख्वाबें सजाना ...!
वो बचपन की तस्वीर का फिर से उभरना ,
आँसुओं का आना जाना , फिर से बचपन का ताना - बाना .. !दीपेश की कलम से....... !
Monday, March 28, 2011 |
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स्वजनों की भारी भीड़ है बाजार में ,पर उनमें अपनों की परछाई दिखाई नहीं पड़ती...सपनों की समाधियों पर हरियाली है ,पर माली में उनको सीचनें की ललक दिखाई नहीं पड़ती...गरीबों की आँखों में खुनी आंसूँ हैं ,पर नक्सलियों में उन्हें सहेजने की आशा दिखाई नहीं पड़ती...बेमौत मर रहे हैं सिपाही आतंक के मैदान में ,पर इन सुशासन के दलालों में उनकी शहादत दिखाई नहीं पड़ती...युवा भारत की उमंगों में लग रही है फुफंद ,पर सिमटते विकास दायरे की गूंज इन्हें विचलित करती दिखाई नहीं पड़ती ...कसाब की फाँसी की फाँस इन्हें रुलाती है ,पर शहीदों की मुरझाती शहादत इन्हें दिखाई नहीं पड़ती...!!
दीपेश की कलम से...!
Tuesday, March 01, 2011 |
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नयी बेला हैं, नया वर्ष है..
पर क्या सपने भी नये हैं ??
चौराहों पर अभी भी वो मुश्किल की घड़ी हैं..,
लूटे रिश्तों की राख भी अभी ठंडी नही हुई हैं ..
नयी बेला हैं, नया वर्ष है ..
पर क्या सपने भी नये हैं ??
नगरों और महानगरों के बीच के खाई और गहरी हो चली हैं,
अगङा भारत - पिछड़ा भारत एक दूजे से दूर हो चले हैं ..!
नयी बेला हैं, नया वर्ष है ...
पर क्या सपने भी नये हैं ??
दानवों के इस दौर में , क्या कुछ फरिस्ते भी नये हैं ..
मनुज के वंसज , नयी धरा के सपने लिये फिर से उठ खड़े हुए हैं..!!
नयी बेला हैं, नया वर्ष है ..
पर क्या सपने भी नये हैं ?? दीपेश की कलम से...!
Friday, December 31, 2010 |
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संभावनाओं की रेखायें... उम्मीदों के क्षितिज पे धुंधली क्यूँ पड़ जाती हैं... जनतंत्र का जीवन गणित समझने- समझाने में
पार्टियों की मस्तिस्क रेखायें शिथिल क्यूँ पड़ जाती हैं .!
अभी कल ही कॉंग्रेस की इंसानियत वाले सेमिनार में
" आम-आदमी " का हृदय सिसक उठा
भगवा - हरा आंतकवाद का भेद समझने- समझाने में..!
संभावनाओं की रेखायें...
उम्मीदों के क्षितिज पे धुंधली क्यूँ पड़ जाती हैं...
रो उठी आत्मा गाँधी और भगत की ..
भारत-माता ललकार उठी
हाँ - हाँ रंग दे मुझे ,
भगवा- हरे के विषरूपी इन्द्रधनुष में ...!
संभावनाओं की रेखायें...
उम्मीदों के क्षितिज पे धुंधली क्यूँ पड़ जाती हैं...
.... दीपेश की कलम से...!
Monday, December 20, 2010 |
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बड़ी अजीब और उदास से दास्ताँ हैहम जैसे सॉफ्टवेयर इंजीनीयरों की ..इस मायावी दुनिया में आये थेबड़े बड़े सपने लेकर..हमेशा कहते रहते थे खुद से" हम पंखों से नहीं , हौसलों से उड़ा करते हैं "पर जब सपनों का सामनाहुआ सच्चाई सेपिघल गयी हौसलों की बर्फ ..बस दिल से निकली एक गुहार ..कौन बचाये इन सॉफ्टवेयर के जल्लादों से...!आओ अतीत पे थोड़ा नजर फिराएंचलो थोड़ा इंजीनियरिंग कॉलेज के दिन याद कर आयें..अभी तो मेहंदी भी नहीं सूखी है इंजीनियरिंग के नाम कीफिर भी क्यूँ बिखर रहे ये सपने ?मिलती रोज नयी डेडलाइन..आँखें पथरा गयी बग ढूडते ढूडतेफिर भी प्रोजेक्ट मँनेजर को दया ना आयीबाँध दिया हमें इलेक्ट्रोनिक्स अटेंडएनस के बंधन मेंछीन गयी अपने वो आज़ादी .बस दिल से निकली एक गुहार ..कौन बचाये इन सॉफ्टवेयर के जल्लादों से...!उलझती जा रही ज़िन्दगी नित्य बदलते टेक्नालजी मेंकभी सर्टिफिकेशन तो कभी नयी ट्रैनिंग में..लुट लिया बस्ती हमारे अरमानों की...बस दिल से निकली एक गुहार ..कौन बचाये इन सॉफ्टवेयर के जल्लादों से...! ..... दीपेश की कलम से...!
Wednesday, July 21, 2010 |
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जब भी नजरें अपनी दौराता हूँ ..
देखता हूँ आसपास ..
ऩजर आती है मिटती संवेदनाएं
पराये होते लोग.. .
.अपने होते शहर ..!
शुक्रिया है भगवान आपका
की मुझे कोशो दूर तक दिखाई नहीं देता..
वर्ना फट पड़ता कलेजा मानव वाला
पराये होते लोग.. .
.अपने होते शहर ..!
मतलबी होते रिश्ते..
लुटता ममत्व
फफकते शिशु ...
पराये होते लोग.. .
.अपने होते शहर ..!
क्यूँ नहीं शहर से सबक लेते लोग..
शहर तो सबको अपनाता है एक समान..
पराये होते लोग.. .
.अपने होते शहर ..!लेखक : दीपेश कुमार
Monday, May 17, 2010 |
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हम कहीं मंदिर बना बैठे तो कहीं मस्जिद
कहीं शमशान बना बैठे तो कहीं कब्रगाह
हमसे अच्छे तो ये परिंदे हैं ..
जो कभी इस गली बैठे तो कभी उस गली
ना काशी की फ़िक्र ना काबुल की
ना अंतिम पराव पे
अग्नि में जलने की चिंता
ना कब्र में दफ़न होने की चिंता...
हमसे अच्छे तो ये परिंदे हैं .... .!
लेखक : दीपेश कुमार
Monday, March 29, 2010 |
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भावनाओं का समंदर कहलाता था कभी वो
पर आज झूठ और कपट के भंवर में
"भावनाओं की अनीमिया " से जूझ रहा है वो
ये छुआ छुत का रोग नहीं
फिर भी हवा में क्यूँ तैर रहे विषाणु
बिखरता समाज
नित्य बनती नयी परिभाषायें मानवता और दानवता की ....
मानवता पे हावी होती दानवता
दूर खरा रो रहा भगवान...
फिर भी क्यूँ तैर रहे ये विषाणु ..
नयी यात्रायें, नित्य नए पराव..
मिलती नयी सीख, मिलते नयी कलयुगी महापुरुष..
फिर भी क्यूँ तैर रहे ये विषाणु ...
शायद जब तक
मनुज नहीं साधेगा
सचाई और ईमानदारी का मंत्र
दूर नहीं होगी ये " अनीमिया भावनाओं की "
तब तक
यूँ ही तैरते रहेंगे हवा में ये विषाणु...!!!
लेखक ; दीपेश कुमार
Friday, March 12, 2010 |
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आम आदमी आम आदमी
नारा रहा है गूंज आसमान में.....
मगर बदल नहीं रही तक़दीर
" आम आदमी " की
कॉंग्रेस ने कहा " उनका हाथ आम आदमी के साथ "
और
भाजपा ने कहा " उनका कमल है आम आदमी "
पर विवशता यही है कि
आज भी वहीँ है आम आदमी
कल तक था जहाँ खरा "आम आदमी "
आम आदमी आम आदमी
नारा रहा है गूंज आसमान में...
बदल रही हैं सरकारें
मगर फिर भी पलट नहीं रही तक़दीर
ठगा जा रहा
पग पग में "आम आदमी "
आम आदमी आम आदमी
नारा रहा है गूंज आसमान में...
बदल रही हैं तो बस पार्टियों की घोषणायें
सिकुर रहा "आम आदमी का संसार "
कहीं भूत के आयने में गुम ना जाये
अपना बेचारा " आम आदमी .....!"
लेखक : दीपेश कुमार
Monday, February 22, 2010 |
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ज़माने ने ऐसा छला
है
भावनाओं को
कि
टूट गयी है
कमर आस्थाओं की.. ज़माने ने ऐसा छला है ....
अधर्म की कुछ चली है
ऐसी लहर कि
डूबती जा रही है
किश्ती मानवता की हे मनुपुत्र.. बचा लो किश्ती
इस मानव की
दिला दो इसे स्वर्गगति....!! लेखक : दीपेश कुमार ` जननायक `
Friday, January 29, 2010 |
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ना जाने क्यूँ... कलयुग की इस सदी में सत्य हमेशा हार जाता है ना जाने क्यूँ... आज की सदी में जो जितना ही ऊँचा वो उतना ही अकेला मुख पर दिखावटी मुस्कान बनाये मन ही मन वह रोता यह सोच आज में चुप हूँ ना जाने क्यूँ... इस उपवन में हमेशा झूठ का ही जयकारा है ....! लेखक : दीपेश कुमार
Sunday, January 24, 2010 |
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अक्शर सोचा करता हूँ ..
पथ के साथी
क्यूँ
गुम हो जाते हैं
अतीत के आएने में..
अक्शर सोचा करता हूँ..
स्मृति की रेखाएं
क्यूँ
सिकुर जाती हैं
आशिया नया बनाने में...
अक्शर सोचा करता हूँ.
जीवन की हरियाली
क्यूँ
मुरझा जाती है
जीवन पथ पे ...! लेखक : दीपेश कुमार
Friday, January 22, 2010 |
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अपनी हाथ की रेखाओं को
हमेशा झुतालाता रहा हूँ मैं कभी जीत को तो
कभी हार को गले लगाता रहा
हूँ मैं
हर हार को
जीत में बदलना जानता हूँ मैं
तकदीर से भी आगे जाने
की तमन्ना रखता हूँ मैं..!!! लेखक :-
दीपेश कुमार
Thursday, January 21, 2010 |
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यादों की अमिट तस्वीर ,
जब जब मानस पटल पर उभरेगी ..
स्मृतियों के बादल से..
तब तब हँसी और
आँसों रुपी फुहारें बरसेंगी.....!!
लेखक : दीपेश कुमार
Thursday, January 21, 2010 |
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