स्वजनों की भारी भीड़ है बाजार में ,
पर उनमें अपनों की परछाई दिखाई नहीं पड़ती...
सपनों की समाधियों पर हरियाली है ,
पर माली में उनको सीचनें की ललक दिखाई नहीं पड़ती...
गरीबों की आँखों में खुनी आंसूँ हैं ,
पर नक्सलियों में उन्हें सहेजने की आशा दिखाई नहीं पड़ती...
बेमौत मर रहे हैं सिपाही आतंक के मैदान में ,
पर इन सुशासन के दलालों में उनकी शहादत दिखाई नहीं पड़ती...
युवा भारत की उमंगों में लग रही है फुफंद ,
पर सिमटते विकास दायरे की गूंज इन्हें विचलित करती दिखाई नहीं पड़ती ...
कसाब की फाँसी की फाँस इन्हें रुलाती है ,
पर शहीदों की मुरझाती शहादत इन्हें दिखाई नहीं पड़ती...!!
दीपेश की कलम से...!
Tuesday, March 01, 2011 |
Category: |
5
comments
Comments (5)
Welcome to my world of thoughts..Kuch dino ke viram ke baad aaye hai ye kavita..aasa hai kee ye aapse kuch swal karegi ? Bas unhi swalaon ka jawab janane kee kosi jo aapke aur mere mann main uthati hai...
please do comment !
Deepesh
nice one
As usual, good work Deepesh!
bahut hi gahaari soch hai ....shai hai....gr8 work....like this one...
heart touching bro