बहुत कुछ अपने मे समेटे हुए
ढेर सारा दर्द और कुछ गुस्सा अपने हुक्ममारणों पे
ये बताते हुए कि
शहर में सब ठीक नहीं
सुना है कुछ राज्य भक्तो ने ,
जला दिए कल सपने कई गरीबों के
सच हे कि गरीब ही सताते हैं गरीब को ,
अमीर तो बस तमाशबीन हैं ये कहते हुए की
शहर में सब ठीक नहीं ..
सड़क के ये सन्नाटे बहुत कुछ समेटे हैं अपनेआप में ,
शायद आने वाली रात की व्यवाह तस्वीरें
पर शहर की फ़िक्र किसे हे
नेता मस्त हैं , जनता त्रस्त हे
और ईश्वर स्तब्ध हें !
दीपेश की कलम से
Tuesday, April 27, 2021 |
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कुछ तो बोलो ,
यूँ चुपी की चादर ना ओढ़ो....
पहले तुम्हारे नयनों से ,
पढ़ लेते थे हर खाविश तुम्हारी....
पर अब इतने दूर हो,
की नयनों का मिलन होता नहीं।
अब बस शब्दों के सहारे हैं…
कुछ तो बोलो ,
यूँ चुपी की चादर ना ओढ़ो...
तुम्हारे साथ बिताये वो सुनहरे पल ,
आज भी मेरी मुस्कुराहटों में शामिल हैं.....
आत्मा भी तुम्हारी हो चली है,
बस शब्दों के सहारे हैं…
कुछ तो बोलो ,
यूँ चुपी की चादर ना ओढ़ो...
दीपेश की कलम से.……
Tuesday, December 30, 2014 |
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जब भी उदासी आती है,
आ जाती हो एक सर्द बयार की तरह..
बच्चों सा झूम उठता हूँ मैं,
भूल के सारी उदासी ..
लौट आती है , वो खिलखिलाती हँसी !
कुछ पलों के लिए यकीन नहीं होता की ,
मेरे सपनों को छोड़ ,
किसी और के सपनों मे शामील हो तुम …
तभी दूसरे पल ,
यादों के बादल बरस पड़ते हें …
और फिर वही सिलसिला यादों का ,
हमेशा झुठलाती रहती हैं मुझे,,,,,,,,,
दीपेश की कलम से…
Monday, June 16, 2014 |
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कभी तुम शब्दोँ में छिपे भाव नहीं समझ पाती,
कभी मैं भावों को शब्दों में सज़ा नहीं पाता..
पर हर बार हारता तो मैं ही हूँ ,
तुम अपनापन जताती नहीं..
मैं परायापन स्वीकारता नहीं...
कभी तुम ख्वाबों में नींद सज़ा जाती ,
कभी मैं ख़वाब ही नहीं सजा पाता..
पर हर बार दिल तो मेरा ही टूटता है ,
तुम अपनापन जताती नहीं..
मैं परायापन स्वीकारता नहीं..
कभी तुम मुस्कान के कमल खिला जाती,
कभी मैं मुस्कुराना भूल जाता हूँ..
पर हर बार नए सपने तो मैं ही बुनता हूँ,
तुम अपनापन जताती नहीं..
मैं परायापन स्वीकारता नहीं ..
दीपेश की कलम से।
Tuesday, December 24, 2013 |
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स्तब्ध हूँ...
तुम्हारे शब्दों के सूखे पे ..
तो कभी दम तोडती रिश्तों के छलावों पे ...
अभी तो,
कोपलें ही फूटी थी..
फिर कैसे फुफंद लग गए जड़ों में ..
स्तब्ध हूँ .....
तुम्हारे मौन पे ..
तो कभी झूठी खोखली हंसी पे ..
अभी तो,प्यार वाली मेहँदी भी नहीं सूखी है ..
फिर क्यूँ विधवा विलाप की तैयारी है ..
स्तब्ध हूँ..
तुमसे जुडी मेरी आस्थाओं पे ............दीपेश की कलम से…
Sunday, August 18, 2013 |
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सपनोँ ने कुछ आँख मिचोली खेली,
मित्रों की कुछ हँसी ठिठोली ...
कुछ अँधेरों के बादल आए ,
संग कुछ आँसू की बूँदें लाये ..
कुछ स्वजनों ने निकाल ली तलवारें ,
थोडा डराए धमकाए ..
अपनी असली तस्वीर दिखाए ,
तभी उजालों ने दस्तक दी ,
और उतर गयी उनकी सारी नकाबें ..
अब किस मुँह से बहलआयें फुसलाये ,
टूट गयी वो चाहत की दीवारायें ..
अब तो बस खिलती है दिखावटी मुस्कानें ....!
दीपेश की कलम से।
Friday, May 24, 2013 |
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क्या मैं भी आदि हो जाने की आदत डाल लूँ ?
अपने देश को बीच भँवर में छोर ,
मुर्दों की तरह जीना सिख लूँ ..?
सत्यमेव जयते को भूल ,
असत्य वाले पगडण्डी पे चल दूं ?
शर्मिंदा कर गुरुजनों के आशीष को ,
अपना लूँ कांग्रेसी वाले सीख को ?
भूल कर अपनों के उपकारों को ,
खो जाउँ नये नवेलों सपनों के जी हुजूरी में ?
कर कलंकित मधुवन की छाती को ,
भूल जाउँ मनु के प्रयासों को ?
अपने कुछ खवाबों को बेच के ,
क्या खरीद लाऊँ कुछ बिकने वाली खुशियों को ?
माना पथरीले हैं रास्ते ,
पर क्या उनसे हार मान के ?
क्या मैं भी आदि हो जाने की आदत डाल लूँ ?
ये जानते हुए भी ,
की सुगम रास्तों की अहमियत क्या है ?
दीपेश की कलम से ......!
Sunday, September 09, 2012 |
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