भावनाओं का समंदर कहलाता था कभी वो
पर आज झूठ और कपट के भंवर में
"भावनाओं की अनीमिया " से जूझ रहा है वो

ये छुआ छुत का रोग नहीं
फिर भी हवा में क्यूँ तैर रहे विषाणु
बिखरता समाज
नित्य बनती नयी परिभाषायें मानवता और दानवता की ....
मानवता पे हावी होती दानवता
दूर खरा रो रहा भगवान...
फिर भी क्यूँ तैर रहे ये विषाणु ..
नयी यात्रायें, नित्य नए पराव..
मिलती नयी सीख, मिलते नयी कलयुगी महापुरुष..
फिर भी क्यूँ तैर रहे ये विषाणु ...
शायद जब तक
मनुज नहीं साधेगा
सचाई और ईमानदारी का मंत्र
दूर नहीं होगी ये " अनीमिया भावनाओं की "
तब तक
यूँ ही तैरते रहेंगे हवा में ये विषाणु...!!!



लेखक ; दीपेश कुमार

Comments (5)

On March 12, 2010 at 9:40 PM , Deepesh Kumar said...

new one from me..!! I wrote it in my training class :)

 
On March 13, 2010 at 7:23 PM , Ragini Chaubey said...

very nice...

 
On March 13, 2010 at 9:24 PM , Unknown said...

nice one!!but some credit should be given to your trainer also...;-). A master piece ..though!!

 
On March 13, 2010 at 9:24 PM , Unknown said...

nice one!!but some credit should be given to your trainer also...;-). A master piece ..though!!

 
On May 31, 2012 at 9:29 AM , rivakuvi said...

I would like to say this one is little moderate poem ...english and hindi both words are being used ..better to use virus instead of vishanu ...by the way all is well