संभावनाओं की रेखायें...
उम्मीदों के क्षितिज पे धुंधली क्यूँ पड़ जाती हैं...
जनतंत्र का जीवन गणित समझने- समझाने में
पार्टियों की मस्तिस्क रेखायें शिथिल क्यूँ पड़ जाती हैं .!
अभी कल ही कॉंग्रेस की इंसानियत वाले सेमिनार में
" आम-आदमी " का हृदय सिसक उठा
भगवा - हरा आंतकवाद का भेद समझने- समझाने में..!
संभावनाओं की रेखायें...
उम्मीदों के क्षितिज पे धुंधली क्यूँ पड़ जाती हैं...
रो उठी आत्मा गाँधी और भगत की ..
भारत-माता ललकार उठी
हाँ - हाँ रंग दे मुझे ,
भगवा- हरे के विषरूपी इन्द्रधनुष में ...!
संभावनाओं की रेखायें...
उम्मीदों के क्षितिज पे धुंधली क्यूँ पड़ जाती हैं...
.... दीपेश की कलम से...!
Monday, December 20, 2010 |
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Comments (8)
bahut umda...
Hi friends...
बहुत दिन बाद वापसी हुए है मेरी इस कविता की दुनिया में... यह कविता दिल से निकली है..आजीज सा हो गया था मन ..रोज़ रोज के आरोप -पर्त्यारोप को देख..सुलग रहा है हर भारतवासी ये सब देख... :(
nice! keep it up!
kya baat hay bhai...Ab lagta hay Kumar Vishwas ke baad dusra no aapka hi hay :-)
Good one dost.. expecting few more good poems from you
Wow i haven't visited ur blog for a long time.. it is luking awesome!! Greatttt..keep going strong.. :)
this one extra ordinary...beyond my limits ...so no comments