नयी बेला हैं, नया वर्ष है..
पर क्या सपने भी नये हैं ??
चौराहों पर अभी भी वो मुश्किल की
घड़ी हैं..,
लूटे रिश्तों की राख भी अभी ठंडी नही हुई हैं ..
नयी बेला हैं, नया वर्ष है ..
पर क्या सपने भी नये हैं
??
नगरों और महानगरों के बीच के खाई और गहरी हो चली हैं,
अगङा भारत - पिछड़ा भारत एक दूजे से दूर हो चले हैं ..!
नयी बेला हैं, नया वर्ष है ...
पर क्या सपने भी नये हैं
??
दानवों के इस दौर में , क्या कुछ फरिस्ते भी नये हैं ..
मनुज के वंसज , नयी धरा के सपने लिये फिर से उठ खड़े हुए हैं..!!
नयी बेला हैं, नया वर्ष है ..
पर क्या सपने भी नये हैं
??


दीपेश की कलम से...!

संभावनाओं की रेखायें...
उम्मीदों के क्षितिज पे धुंधली क्यूँ पड़ जाती हैं...
जनतंत्र का जीवन गणित समझने- समझाने में
पार्टियों की मस्तिस्क रेखायें शिथिल क्यूँ पड़ जाती हैं .!


अभी कल ही कॉंग्रेस की इंसानियत वाले सेमिनार में
" आम-आदमी " का हृदय सिसक उठा
भगवा - हरा आंतकवाद का भेद समझने- समझाने में..!
संभावनाओं की रेखायें...

उम्मीदों के क्षितिज पे धुंधली क्यूँ पड़ जाती हैं...


रो
उठी आत्मा
गाँधी और भगत की ..
भारत-माता ललकार उठी

हाँ - हाँ रंग दे मुझे ,

भगवा- हरे के विषरूपी इन्द्रधनुष में ...!

संभावनाओं की रेखायें...

उम्मीदों के क्षितिज पे धुंधली क्यूँ पड़ जाती हैं...


....
दीपेश की कलम से...!

बड़ी अजीब और उदास से दास्ताँ है
हम जैसे सॉफ्टवेयर इंजीनीयरों की ..
इस मायावी दुनिया में आये थे
बड़े बड़े सपने लेकर..
हमेशा कहते रहते थे खुद से
" हम पंखों से नहीं , हौसलों से उड़ा करते हैं "
पर जब सपनों का सामना
हुआ सच्चाई से
पिघल गयी हौसलों की बर्फ ..
बस दिल से निकली एक गुहार ..
कौन बचाये इन सॉफ्टवेयर के जल्लादों से...!
आओ अतीत पे थोड़ा नजर फिराएं
चलो थोड़ा इंजीनियरिंग कॉलेज के दिन याद कर आयें..
अभी तो मेहंदी भी नहीं सूखी है इंजीनियरिंग के नाम की
फिर भी क्यूँ बिखर रहे ये सपने ?
मिलती रोज नयी डेडलाइन..
आँखें पथरा गयी बग ढूडते ढूडते
फिर भी प्रोजेक्ट मँनेजर को दया ना आयी
बाँध दिया हमें इलेक्ट्रोनिक्स अटेंडएनस के बंधन में
छीन गयी अपने वो आज़ादी .
बस दिल से निकली एक गुहार ..
कौन बचाये इन सॉफ्टवेयर के जल्लादों से...!
उलझती जा रही ज़िन्दगी नित्य बदलते टेक्नालजी में
कभी सर्टिफिकेशन तो कभी नयी ट्रैनिंग में..
लुट लिया बस्ती हमारे अरमानों की...
बस दिल से निकली एक गुहार ..
कौन बचाये इन सॉफ्टवेयर के जल्लादों से...!


..... दीपेश की कलम से...!

जब भी नजरें अपनी दौराता हूँ ..
देखता हूँ आसपास ..
ऩजर आती है मिटती संवेदनाएं
पराये होते लोग.. .
.अपने होते शहर ..!
शुक्रिया है भगवान आपका
की मुझे कोशो दूर तक दिखाई नहीं देता..
वर्ना फट पड़ता कलेजा मानव वाला
पराये होते लोग.. .
.अपने होते शहर ..!
मतलबी होते रिश्ते..
लुटता ममत्व
फफकते शिशु ...
पराये होते लोग.. .
.अपने होते शहर ..!
क्यूँ नहीं शहर से सबक लेते लोग..
शहर तो सबको अपनाता है एक समान..
पराये होते लोग.. .
.अपने होते शहर ..!


लेखक : दीपेश कुमार

हम कहीं मंदिर बना बैठे तो कहीं मस्जिद
कहीं शमशान बना बैठे तो कहीं कब्रगाह
हमसे अच्छे तो ये परिंदे हैं ..
जो कभी इस गली बैठे तो कभी उस गली
ना काशी की फ़िक्र ना काबुल की
ना अंतिम पराव पे
अग्नि में जलने की चिंता
ना कब्र में दफ़न होने की चिंता...
हमसे अच्छे तो ये परिंदे हैं .... .!


लेखक : दीपेश कुमार

भावनाओं का समंदर कहलाता था कभी वो
पर आज झूठ और कपट के भंवर में
"भावनाओं की अनीमिया " से जूझ रहा है वो

ये छुआ छुत का रोग नहीं
फिर भी हवा में क्यूँ तैर रहे विषाणु
बिखरता समाज
नित्य बनती नयी परिभाषायें मानवता और दानवता की ....
मानवता पे हावी होती दानवता
दूर खरा रो रहा भगवान...
फिर भी क्यूँ तैर रहे ये विषाणु ..
नयी यात्रायें, नित्य नए पराव..
मिलती नयी सीख, मिलते नयी कलयुगी महापुरुष..
फिर भी क्यूँ तैर रहे ये विषाणु ...
शायद जब तक
मनुज नहीं साधेगा
सचाई और ईमानदारी का मंत्र
दूर नहीं होगी ये " अनीमिया भावनाओं की "
तब तक
यूँ ही तैरते रहेंगे हवा में ये विषाणु...!!!



लेखक ; दीपेश कुमार

आम आदमी आम आदमी
नारा रहा है गूंज आसमान में.....
मगर बदल नहीं रही तक़दीर
" आम आदमी " की
कॉंग्रेस ने कहा " उनका हाथ आम आदमी के साथ "
और
भाजपा ने कहा " उनका कमल है आम आदमी "
पर विवशता यही है कि
आज भी वहीँ है आम आदमी
कल तक था जहाँ खरा "आम आदमी "
आम आदमी आम आदमी
नारा रहा है गूंज आसमान में...
बदल रही हैं सरकारें
मगर फिर भी पलट नहीं रही तक़दीर
ठगा जा रहा
पग पग में "आम आदमी "
आम आदमी आम आदमी
नारा रहा है गूंज आसमान में...
बदल रही हैं तो बस पार्टियों की घोषणायें
सिकुर रहा "आम आदमी का संसार "
कहीं भूत के आयने में गुम ना जाये
अपना बेचारा " आम आदमी .....!"

लेखक : दीपेश कुमार
ज़माने ने ऐसा छला
है भावनाओं को
कि टूट गयी है
कमर आस्थाओं की..
ज़माने ने ऐसा छला है ....
अधर्म की कुछ चली है
ऐसी लहर
कि
डूबती जा रही है
किश्ती मानवता की
हे मनुपुत्र..
बचा लो किश्ती
इस
मानव की
दिला
दो इसे स्वर्गगति....!!


लेखक : दीपेश कुमार ` जननायक `

ना जाने क्यूँ...
कलयुग की इस सदी में
सत्य हमेशा हार जाता है
ना जाने क्यूँ...
आज की सदी में
जो जितना ही ऊँचा
वो उतना ही अकेला
मुख पर दिखावटी मुस्कान बनाये
मन ही मन वह रोता
यह सोच आज में चुप हूँ
ना जाने क्यूँ...
इस उपवन में
हमेशा झूठ का ही जयकारा है ....!

लेखक :
दीपेश कुमार

अक्शर सोचा करता हूँ ..
पथ के साथी
क्यूँ
गुम हो जाते हैं
अतीत के आएने में..

अक्शर सोचा करता हूँ..
स्मृति की रेखाएं
क्यूँ
सिकुर जाती हैं
आशिया नया बनाने में...

अक्शर सोचा करता हूँ.
जीवन की हरियाली
क्यूँ
मुरझा जाती है
जीवन पथ पे ...!


लेखक :
दीपेश कुमार

अपनी हाथ की रेखाओं को
हमेशा
झुतालाता रहा हूँ मैं
कभी जीत को तो
कभी हार को
गले लगाता रहा
हूँ मैं
हर
हार को
जी
में बदलना जानता हूँ मैं
तकदीर
से भी आगे जाने
की
तमन्ना रखता हूँ मैं..!!!


लेखक :-
दीपेश कुमार





यादों की अमिट तस्वीर ,
जब जब मानस पटल पर उभरेगी ..
स्मृतियों के बादल से..
तब तब हँसी और
आँसों रुपी फुहारें बरसेंगी.....
!!



लेखक :
दीपेश कुमार