कभी तुम शब्दोँ में छिपे भाव नहीं समझ पाती,

कभी मैं भावों को शब्दों में सज़ा नहीं पाता..

पर हर बार हारता तो मैं ही हूँ ,

तुम अपनापन जताती नहीं..

मैं परायापन स्वीकारता नहीं...

कभी तुम ख्वाबों में नींद सज़ा जाती ,

कभी मैं ख़वाब ही नहीं सजा पाता..

पर हर बार दिल तो मेरा ही  टूटता है ,

तुम अपनापन जताती नहीं..

मैं परायापन स्वीकारता नहीं..

कभी तुम मुस्कान के कमल खिला जाती,

कभी मैं मुस्कुराना भूल जाता हूँ..

पर हर बार नए सपने तो मैं ही बुनता हूँ,

तुम अपनापन जताती नहीं..

मैं परायापन स्वीकारता नहीं ..



दीपेश की कलम से





















स्तब्ध हूँ...
तुम्हारे शब्दों  के सूखे पे ..
तो कभी दम तोडती रिश्तों के छलावों  पे ...
अभी तो,
कोपलें ही  फूटी  थी..
फिर कैसे फुफंद लग गए जड़ों में ..

स्तब्ध हूँ .....
तुम्हारे मौन पे ..
तो कभी झूठी खोखली हंसी पे ..

अभी तो,
प्यार वाली मेहँदी भी नहीं सूखी है ..
फिर क्यूँ विधवा विलाप की तैयारी है ..
स्तब्ध हूँ..

तुमसे जुडी मेरी आस्थाओं पे
............


दीपेश की कलम से…




सपनोँ ने  कुछ आँख मिचोली खेली,
मित्रों की कुछ हँसी ठिठोली ...
कुछ अँधेरों के बादल आए ,
संग  कुछ आँसू की बूँदें लाये ..
कुछ स्वजनों ने निकाल ली तलवारें ,
थोडा डराए धमकाए ..
अपनी असली तस्वीर दिखाए ,
तभी उजालों ने दस्तक दी ,
और उतर गयी उनकी सारी नकाबें ..
अब किस मुँह से बहलआयें फुसलाये ,
टूट गयी वो चाहत की दीवारायें ..
अब तो बस खिलती है दिखावटी मुस्कानें ....!


दीपेश की कलम से।