उम्मीदें भी बड़ी अजीब होती हैं ...
कभी सपनों के करीब ,
तो कभी उनसे कोसों दूर होती हैं...
कभी नाकामियों को याद दिलाती ,
तो कभी ख्वाहिशों को पंख लगाती हैं ..
उम्मीदें भी बड़ी अजीब होती हैं...
कभी अंधेरों में जुगनू की तरह राह दिखाती ,
तो कभी घनी दुपहरी में बादलों का घेरा लगाती हैं ..
कभी नव-सृजन को अंकित करती ,
तो कभी सृष्टि-विनाश का सूचक बनती हैं ...
उम्मीदें भी बड़ी अजीब होती हैं ....


                                           दीपेश की कलम से....... !


जब भी नजरें फिराता हूँ , बचपन की तस्वीरों पे
सहसा , आँखों में
आँसूं आ ही जाते हैं ..!
कितने हसीन दिन थे वो ,

आँखों में बस सच्चाई ही बसती थी .. !

पल में रोना , पल में हँसना

पर गिले शिकवों का नामो-निशान ना होना ...!
आज खेल - खेल में हुई लड़ाई ,

पर कल फिर वही गले-लगाई...!

वो बारिश की बूंदों का हथेली पे सिमटना ,

कागज़ के नावों का उलटना - पलटना ..!
वो घुटनों का छिलना,

पर हाँ - ना के भँवर से दिल का ना दुखना ..!
वो खीलौनो का टूटना - फूटना ,
पर सपनों का रोज सजना - सवरना...!

वो बचपन की तस्वीर का फिर से उभरना ,
आँसुओं का आना जाना , फिर से बचपन का ताना - बाना .. !

आँखों में आँसू , मुख पे हँसी
लिए
ऑफिस को जाना , लुट चुकी बचपन के ख्वाबें सजाना
...!
वो बचपन की तस्वीर का फिर से उभरना
,
आँसुओं का आना जाना , फिर से बचपन का ताना - बाना .. !


दीपेश की कलम से....... !

स्वजनों की भारी भीड़ है बाजार में ,
पर उनमें अपनों की परछाई दिखाई नहीं पड़ती...
सपनों की समाधियों पर हरियाली है ,
पर माली में उनको सीचनें की ललक दिखाई नहीं पड़ती...
गरीबों की आँखों में खुनी आंसूँ हैं ,
पर नक्सलियों में उन्हें सहेजने की आशा दिखाई नहीं पड़ती...
बेमौत मर रहे हैं सिपाही आतंक के मैदान में ,
पर इन सुशासन के दलालों में उनकी शहादत दिखाई नहीं पड़ती...
युवा भारत की उमंगों में लग रही है फुफंद ,
पर सिमटते विकास दायरे की गूंज इन्हें विचलित करती दिखाई नहीं पड़ती ...
कसाब की फाँसी की फाँस इन्हें रुलाती है ,
पर शहीदों की मुरझाती शहादत इन्हें दिखाई नहीं पड़ती...!!


दीपेश
की कलम से...!