कुछ तो बोलो ,
यूँ चुपी की चादर ना ओढ़ो....
पहले तुम्हारे नयनों से ,
पढ़ लेते थे हर खाविश तुम्हारी....
पर अब इतने दूर हो,
की नयनों का मिलन होता नहीं। 
अब बस  शब्दों के सहारे हैं…
कुछ तो बोलो ,
यूँ चुपी की चादर ना ओढ़ो...
तुम्हारे साथ बिताये वो सुनहरे पल ,
आज भी मेरी मुस्कुराहटों में शामिल हैं..... 
आत्मा भी तुम्हारी हो चली है,
बस  शब्दों के सहारे हैं…
 कुछ तो बोलो ,
यूँ चुपी की चादर ना ओढ़ो...


दीपेश की कलम से.…