कभी तुम शब्दोँ में छिपे भाव नहीं समझ पाती,

कभी मैं भावों को शब्दों में सज़ा नहीं पाता..

पर हर बार हारता तो मैं ही हूँ ,

तुम अपनापन जताती नहीं..

मैं परायापन स्वीकारता नहीं...

कभी तुम ख्वाबों में नींद सज़ा जाती ,

कभी मैं ख़वाब ही नहीं सजा पाता..

पर हर बार दिल तो मेरा ही  टूटता है ,

तुम अपनापन जताती नहीं..

मैं परायापन स्वीकारता नहीं..

कभी तुम मुस्कान के कमल खिला जाती,

कभी मैं मुस्कुराना भूल जाता हूँ..

पर हर बार नए सपने तो मैं ही बुनता हूँ,

तुम अपनापन जताती नहीं..

मैं परायापन स्वीकारता नहीं ..



दीपेश की कलम से