नयी बेला हैं, नया वर्ष है..
पर क्या सपने भी नये हैं ??
चौराहों पर अभी भी वो मुश्किल की घड़ी हैं..,
लूटे रिश्तों की राख भी अभी ठंडी नही हुई हैं ..
नयी बेला हैं, नया वर्ष है ..
पर क्या सपने भी नये हैं ??
नगरों और महानगरों के बीच के खाई और गहरी हो चली हैं,
अगङा भारत - पिछड़ा भारत एक दूजे से दूर हो चले हैं ..!
नयी बेला हैं, नया वर्ष है ...
पर क्या सपने भी नये हैं ??
दानवों के इस दौर में , क्या कुछ फरिस्ते भी नये हैं ..
मनुज के वंसज , नयी धरा के सपने लिये फिर से उठ खड़े हुए हैं..!!
नयी बेला हैं, नया वर्ष है ..
पर क्या सपने भी नये हैं ??
दीपेश की कलम से...!
Friday, December 31, 2010 |
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